A Sip Of Tea With The Times Gone By – Pratithi Devmani

A Sip Of Tea With The Times Gone By
~Pratithi Devmani

 

बचपन में दोस्तों के साथ जो आम के पेड़ लगाए थे 

वो आज बड़े हो गए

और शायद हम भी

उस पेड़ के चारों ओर हमारी गूँजती चिल्लाहट 

वो कहीं शांत खड़े हो गए

और शायद हम भी 

अब सोचती हूं तो उस समय को याद करती हूं 

और उस पेड़ के नीचे नए बच्चों को देखकर

खुद को ढूंढने की कोशिश करती हूं 

बचपन में बनाया गया कागज का नाव 

जिम्मेदारियो के नदी में कहीं दूर बह गया 

और सुबह खिलखिलातो से भरा मैदान

शाम को सूना रह गया 

जो बचा भूख लगने पर 

माँ के नाम की पुकार लगा दिया करता था 

जो बच्चा चोट लगने पर 

माँ के नाम की गुहार लगा दिया करता था

वही बच्चा आज सारे दर्द आसुओ के पीछे सह गया 

और माँ का आँचल सूना रह गया  

जिन वरिष्ठ नागरिकों को देखकर हम बड़ा होना चाहते थे 

अब उन्न् हसमुख चेहरे का सच समझ आ चुका है 

बचपन में पूछा गया सवाल- 

“भैया, दीदी, आप इतने लंबे चौड़े जवाब याद करते हो?” 

ये सवाल जूनियर्स से सुनने का समय ए चूका है 

“बड़े होके डॉक्टर बनूंगी

माई तो आईपीएस ऑफिसर बनूंगा”

बचपन के ख्वाब पूरे करने के दिन आ गए

माँ बाप के आखो के तारे से 

उनके सीने का गर्व बनने के दिन आ गये

रिले रेस मी टीम्स मी डिवाइड होन से लेकर 

आज हम स्ट्रीम्स में डिवाइड हो गए 

किसी ने डमी लिया तो किसी ने दिल्ली कोटा

कोई हसकर अलविदा कहता तो कोई जी भरके रोता

“ए हमेंशा हमेशा के लिए मुझे छू कर रहेंगे”

वोहा मौजुद हर एक शख़्स कह गया 

पर लाख कोशिश के बावजूद 

‘फॉरएवर’ शायद बस एक शब्द रह गया

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